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रक्षा॑ णो अग्ने॒ तव॒ रक्ष॑णेभी रारक्षा॒णः सु॑मख प्रीणा॒नः। प्रति॑ ष्फुर॒ वि रु॑ज वी॒ड्वंहो॑ ज॒हि रक्षो॒ महि॑ चिद्वावृधा॒नम् ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rakṣā ṇo agne tava rakṣaṇebhī rārakṣāṇaḥ sumakha prīṇānaḥ | prati ṣphura vi ruja vīḍv aṁho jahi rakṣo mahi cid vāvṛdhānam ||

पद पाठ

रक्ष॑। नः॒। अ॒ग्ने॒। तव॑। रक्ष॑णेभिः। र॒र॒क्षा॒णः। सु॒ऽम॒ख॒। प्री॒णा॒नः। प्रति॑। स्फु॒र॒। वि रु॒ज॒। वी॒ळु। अंहः॑। ज॒हि। रक्षः॑। महि॑। चि॒त्। व॒वृ॒धा॒नम्॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:3» मन्त्र:14 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राज्यपालन विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुमख) उत्तम न्याय व्यवहार के पालन करनेवाले (अग्ने) राजन् ! आप (नः) हम लोगों की (रक्ष) रक्षा करो और (महि) बड़े (वावृधानम्) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुए की (रारक्षाणः) रक्षा करते (प्रीणानः) प्रसन्न होते वा प्रसन्न करते हुए, (प्रति, स्फुर) पुरुषार्थ करो और शत्रु को (वीळु) दृढ़ (वि, रुज) विशेषता से अच्छे प्रकार भग्न करो और (अंहः) पाप का (जहि) नाश करो (रक्षः) दुष्ट शत्रु का भङ्ग करो और जिससे (तव) आपके (चित्) भी (रक्षणेभिः) अनेक प्रकार के उपायों से हम लोग सुखी होवें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - वे ही राजा लोग यश के भागी हैं कि जो दुष्ट पुरुषों की दुष्टता को दूर कर और श्रेष्ठ पुरुषों की श्रेष्ठता बढ़ा के राज्य का निरन्तर पिता के समान अर्थात् पिता अपने पुत्र की पालना करता, वैसे पालन करें ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राज्यपालनविषयमाह ॥

अन्वय:

हे सुमखाऽग्ने ! त्वं नो रक्ष महि वावृधानं रारक्षाणः प्रीणानः सन् प्रति स्फुर। शत्रुं वीळु विरुज अंहो जहि रक्षो विरुज यतस्तव चिद्रक्षणेभिर्वयं सुखिनः स्याम ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रक्ष) पालय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अग्ने) राजन् (तव) (रक्षणेभिः) अनेकविधैरुपायैः (रारक्षाणः) भृशं रक्षन्त्सन् (सुमख) सुष्ठुन्यायव्यवहारपालकः (प्रीणानः) प्रसन्नः प्रसादयन् (प्रति) (स्फुर) पुरुषार्थाय (वि) (रुज) प्रभग्नं कुरु (वीळु) दृढम् (अंहः) पापम् (जहि) (रक्षः) दुष्टं शत्रुम् (महि) महान्तम् (चित्) अपि (वावृधानम्) भृशं वर्धमानम् ॥१४॥
भावार्थभाषाः - त एव राजानः कीर्त्तिभाजो ये दुष्टानां दुष्टतां निवार्य्य श्रेष्ठानां श्रेष्ठतां वर्धयित्वा राज्यं सततं पितृवत्पालयेयुः ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे दुष्टांची दुष्टता दूर करून श्रेष्ठांची श्रेष्ठता वाढवून राज्याचे निरंतर पित्याप्रमाणे पालन करतात, तेच राजे कीर्तिमान असतात. ॥ १४ ॥